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बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

yaad rakhiyega

हम अपनी खुशियों me इतने खो जाते  है क़ि हमे याद ही नहीं रहता क़ि इन खुशियों को मनाने क़ा अधिकार  हमे ऐसे  ही नहीं मिल गया. अभी karavaachoth क़ा utsav  बड़े उत्साह के साथ मनाया गया. बाजारों में खरीदारी करती महिलाओं क़ि ख़ुशी देखते ही बनती थी. व्रत रखकर सायंकाल को पति क़ा मुख देखकर; छलनी से चंद्रमा को देखकर;व्रत खोला होगा. अपने सदा सुहागन रहने की मन्नत मांगी होगी पर एक prshan मेरे ह्रदय में अनायास ही इस मौके पर दस्तक दे रहा है क़ि कितनी सुहागने पति -मुख व् चद्रमा -दर्शन से पूर्व उन लाखों शहीदों को dhanywad देती होंगी की 'आपके बलिदानों के कारण ही हमें आज यह सौभाग्य  प्राप्त हुआ है ?क्या सुहागनों ने उन 'अमर सुहागनों 'क़ा भी धन्यवाद किया होगा क़ि'यदि आप अपने पतियों को सीमाओं पर; खतरनाक ऑपरेशनों  पर ख़ुशी- ख़ुशी तिलक लगाकर विदा न करती तो शायद कितनी ही मांगों क़ा सिंदूर लुट जाता? 'अमर सुहागन' कौन hai ? इसका उत्तर मै अपनी इन पंक्तियों में दूंगी---
'हे शहीद क़ि प्राण प्रिय ;तू ऐसे शोक क्यों करती है;
तेरे प्रिय के बलिदानों से ही; हर दुल्हन मांग को भरती है;
सब सुहाग  क़ि raksha हित ;करवाचोथ व्रत करती हैं;
ये dekh के तेरी आँखों से ;आंसू क़ि धारा
 बहती है;
यूँ आँखों से आंसू न बहा ;हर दिल क़ि धड़कन कहती है;

जिसका प्रिय हुआ शहीद यहाँ ;वो 'अमर सुहागन 'रहती है.
शहीदों ;अमर सुहागनों के साथ-साथ ह्रदय से dhanyvad कीजिये उन बड़े दिल वाले माता-पिताओं क़ा ;जिन्होंने अपने 'ह्रदय के टुकडो'  को अपने दिल पर पत्थर रखकर भेज दिया  देश हित हेतु .'करवाचोथ' पर चूक गए तो क्या हुआ ''अहोई-अष्टमी' पर अपने बेटों को दुलारते हुए याद रखियेगा क़ि कंही 'संदीप उन्नीकृष्णन'[मुंबई आतंकवादी हमले में शहीद] के माता-पिता जैसे महान दंपत्ति भी है जिन्होनें इकलौते पुत्र को भी देश-सेवा में समर्पित कर दिया.याद रखेंगे न ! उन क़ा ह्रदय से धन्यवाद करना! 

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

masoom-musksrahat

क्या आपने भी यह महसूस किया है क़ि आजकल के बच्चों में वह मासूमियत-वह भोलापन नहीं दिखता जो पहले था. मैंने अपने निजी अनुभव में पाया क़ि जिन बच्चों को हम काफी laad करते रहे है;वे भी कई बार आंखे झुकाकर-आंखे फेरकर हमारे आगे से निकल जाते है और अगर आंख मिल भी जाये तो उनके होंठों पर मुस्कराहट तक नहीं आती.मेरी जानकारी के एक अच्छे-खासे घर के दो बच्चे[सात से दस साल क़ि आयु के] हमे बड़ी ढीठता के साथ देखते हुए निकल जाते है. अगर हम उन्हें बुलाये तो हाथ से मनाही का संकेत कर आगे बढ़ जाते है.कई बार तो यह लगता है क़ि आज के बच्चे हम से भी jyada बड़े हो गए है.हम आज भी अपने मित्रों को 'बॉय-फ्रेंड' 'गर्ल-फ्रेंड' के रूप में नहीं देखते पर आजकल के दस से बारह वर्ष के बच्चों क़ि बातों ने  मुझे चकित ही कर दिया. एक दिन मेरे घर की बाहर की सड़क पर इस आयु- वर्ग के तीन बच्चे खेल रहे थे तभी एक बच्चा कुछ दूर खड़ी अपनी क्लास क़ि sahpathhini से बात करने चला गया.इस पर एक बच्चा दूसरे बच्चे से बोला -'देख वो अपनी गर्ल फ्रेंड से बात कर रहा है.'एक अन्य घटना ने भी मुझे चकित कर दिया था.मेरे ही पड़ोस के कुछ बच्चे मेरे घर के बाहर लगी बेल को noch-nochkar कूड़ा फैला रहे थे.मैंने उन्हें danta तो वे शर्मिंदा न होकर आंख दिखाते हुए चले तो गए पर बाद में उन्होंने यह योजना बनाई की रोज कूड़ा फैलाकर जाया करेगे.यद्यपि वे मेरी सजगता के कारण सफल नहीं हो पाए.इतने छोटे बच्चों की इसी budhdhi देखकर मुझे  यह महसूस हुआ कि क्या बच्चे अब मासूम नहीं रहे?क्योंकि जब मै छोटी थी और किसी ने अपने घर के बाहर गिरे फूल उठने पर मुझे टोका था; मै घर भागकर आ गयी थी और मुझे कई दिन तक यह डर रहा था ki वे मेरे घर आकर मेरी शिकायत न करदे.आजकल के बच्चों के लिए तो बस मै यही प्राथना kar सकती हूँ कि ''हे प्रभु ! इनके होठों पर मासूम मुस्कराहट लौटा दो और उनके ह्रदय में वही कोमल भावनाए भर दो जिनके कारण बच्चे भगवान क़ा रूप कहलाते आये हैं!''

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

badta bhrashtachar utaardayee hum

बढ़ता  भ्रष्टाचार  ...जिम्मेदार कौन   !

हम अक्सर अपने देश की विकास गति बाधित होने ; समस्याओं का समाधान न होने अथवा भ्रष्टाचार के लिए अपने नेताओं को पूर्णरूप से उत्तरदायी ठहरा देते हैं;किन्तु सच्चाई के साथ स्वीकार करें तो हम भी कम जिम्मेदार  नहीं है. पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक कितने मतदाता है जो अपने घर आए प्रत्याशी से साफ-साफ यह कह दें क़ि हमें अपने निजी हित नहीं सार्वजानिक हित में आपका योगदान चहिये.हम खुद यह सोचने लगते है क़ि यदि हमारा जानकर व्यक्ति चुन लिया गया तो हमारे काम आसानी से हो जायेंगे.चुनाव -कार्यालय के उद्घाटन से लेकर वोट खरीदने तक का खर्चा हमारे प्रतिनिधि पञ्च वर्ष में निकाल   लेते हैं.हमारे प्रतिनिधि हैं ;हममें से हैं-भ्रष्ट  हैं -तो हम कैसे ईमानदार हैं?  नगरपालिका से लेकर लोकसभा तक में हमारा प्रतिनाधित्व करने वाले व्यक्ति उसी मिटटी; हवा; प्रकाश; जल ;से बने हैं-जिससे हम बने हैं. यदि हम ईमानदार समाज ;राष्ट्र  चाहते हैं तो हुमेंपहले खुद ईमानदार होना होगा . हमें खुद से यह प्रण करना होगा क़ि हम अपने किसी काम को करवाने के लिए रिश्वत-उपहार नहीं देंगे;यहाँ तक क़ि किसी रेस्टोरेंट के वेटर को टिप तक नहीं देंगे. ये टिप ;ये उपहार; रिश्वत- सरकारी  निजी विभागों   में बैठे  कर्मचारियों;वेटर; प्रत्येक विभाग  के ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारियोंमे लोभ रूपी राक्षस को जगाकर भ्रष्टाचार  का मार्ग प्रशस्त करते हैं.टिप पाने वाला आपका काम अतिरिक्त स्नेह से करता है किन्तु अन्य के प्रति ;जो टिप नहीं दे सकता ; उपेक्षित व्यवहार  करता है ...मतलब  साफ़ है प्रत्येक    के प्रति समान कर्तव्य निर्वाह -भाव से बेईमानी. सरकारी नौकरी लगवानी हो तो इतने रूपये तो देने ही होंगे-ऐसे विवश-वचन प्रत्येक  नागरिक के मुख पर है.क्यों नहीं हम कहते क़ि नौकरी लगे या न लगे मैं एक भी पैसा नहीं दूंगा..कुछ लोग इस सम्बन्ध में हिसाब लगाकर कहते हैं-एक बार दे दो फिर जीवन भर मौज करो! किन्तु आप यह रकम देकर न केवल किसी और योग्य का पद छीन रहें हैं बल्कि आने वाली पीढ़ी को भी भी भ्रष्टाचार संस्कार रूप में दे रहें हैं. ईश्वर-अल्लाह-गुरुनानक-ईसा मसीह---- जिसके भी आप भक्त हैं ;जिसमे भी आप आस्था रखते हैं; उनके समक्ष खड़े होकर ;आप एकांत   में यदि यह कहें क़ि मैने  ये भ्रष्ट आचरण इस कारण या उस कारण किया है तो प्रभु हसकर कहेंगे--यदि तूने  कुछ गलत नहीं किया है तो मुझे बताकर अपने कार्य को न्यायोचित क्यों ठहराना चाह रहा है. अत: अपनी आत्मा  को न मारिये !भ्रष्टाचार को स्वयं के स्तर से समाप्त करने का प्रयास कीजिये.