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गुरुवार, 30 जून 2011

ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी [भाग-३ ]

ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी  [भाग-३ ]

कई बार तो ब्लोगर हताश होने लगता है.महत्वपूर्ण विषय पर लिखे आलेख पर एक या आधी ही टिप्पणी प्राप्त होती है वहीँ अर्थहीन आलेखों पर टिप्पणिओं की बौछार .दिल में एक आह! उठती है........सोचता है -क्यूँ न ब्लोगिंग को अलविदा ही कह दूं -

                   ''आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक 
                     कौन जीता है तेरी जुल्फ के सर होने तक .''

ऐसी विषम परिस्थिति में कुछ ब्लोगर फरिश्तों के रूप में उसको साहस देने के लिए उपस्थित होते हैं .साहस देते हैं संघर्ष करने का .वे उसे मन्त्र बतलाते हैं -''न दैन्यं न पलायनं '.न किसी की टिप्पणी का इंतजार करो और न ब्लोगिंग से पलायन.वे कहते हैं ब्लोगिंग का तो मजा ही ये है-

                 ''इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना 
                     दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना ''

वे समझाते हैं किसी की टिप्पणी को लेकर अपने सिर में दर्द मत करो .लिखते रहो....लिखते रहो.....लिखते रहो -

                         ''ग़ालिब बुरा न मान जो वाइस बुरा कहे 
                         ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे ''

वे अपना फलसफ़ा बताते हैं जिससे ''ब्लोगिंग छोड़ने ''का कुत्सित विचार फिर से ब्लोगर के ह्रदय में न आये-

                     ''रोक लो गर गलत चले कोई 
                    बख्श दो गर खता करे कोई ''

इस पर भी कोई दुष्ट पीछे पड़ ही जाये आपकी अच्छी-भली पोस्ट की धज्जियाँ उड़ाने के लिए तो धीरज रखिये-

                     ''की वफ़ा हमसे तो गैर उसको जफा कहते हैं 
                       होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं ''

                                -अंत में -
प्रत्येक ब्लोगर को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं ब्लोगिंग जानलेवा ही न बन जाये .आप खुद परखें आप में ये गंभीर लक्षण तो दिखाई नहीं दे रहे -

१-अच्छी पोस्ट लिखने पर जब टिप्पणी न मिले तो आप ऐसा महसूस करते हैं -

                      ''आ के मेरी जान को करार नहीं है 
                       ताकते-बेदादे-इंतजार नहीं है ''

२-आपकी अन्य गतिविधियाँ ठप्प पड़ गयी  हैं बस हर समय ब्लोगिंग-ब्लोगिंग-ब्लोगिंग ही दिल-दिमाग पर छाई रहती है आप खुद को निक्कमा महसूस करने लगें है -
         
                    ''इश्क ने 'ग़ालिब' निक्कमा कर दिया 
                   वरना हम भी आदमी थे काम के ''

३-आप खाना-पीना यहाँ तक की सोना -हँसना तक भूलने लगे हैं ब्लोगिंग के तनाव में -

                   ''आगे आती थी हाले दिल पे हंसी 
                      अब किसी बात पर नहीं आती ''

यदि ऊपर वर्णित लक्षणों में से कोई भी लक्षण आप खुद में देखें तो अनुभवी ब्लोगर से जरूर सलाह ले क्योंकि ब्लोगिंग अनुभवी ब्लोगर्स की नजर में तो बस यही है -


           ''ये इश्क नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजिये 
             इक आग का दरिया है और डूबते जाना है ''
  
                                                                                                  समाप्त 
                           शिखा कौशिक http://vicharonkachabootra.blogspot.com

मंगलवार, 28 जून 2011

ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी [भाग दो ]

ब्लोगिंग  और  ग़ालिब की शायरी [भाग दो ]
     कुछ टिप्पणीकार तो साधारण पोस्ट की भी इतनी प्रशंसा कर देते हैं की ब्लोगर स्वयं यह सोचने को मजबूर हो जाता है कि ऐसा क्या लिख दिया है मैंने कि ये टिप्पणीकार इतनी तारीफ कर रहे हैं -

                            ''दिल से तेरी निगाह जिगर में उतर गई ,
                             दोनों को इक अदा में रजामंद कर गयी .''

लेकिन ऐसा नहीं कि केवल प्रशंसा ही हो .अति आलोचना का भी शिकार बनना पड़ता है .ब्लोगर खुद को कोसता है  कि किस मनहूस घडी में मैंने यह पोस्ट डाली थी ? मुंह-दर-मुहं हो तो मार-पिटाई तक भी बात पहुँच सकती है पर ब्लॉग-जगत की गरिमा बनायें रखने के लिए ब्लोगर आलोचनाकार को बार-बार ''जी'' लगाकर अपनी बात समझानें का प्रयास करता है .इस पर भी यदि आलोचनाकार न माने तो दिल में ये तो आता ही है -

                           ''हर एक बात पर कहते हो तुम कि तू क्या है ;
                                 तुम्ही कहो कि ये अंदाजे -गुफ्तगू क्या है .''

थोडा सख्त लिख दिया तो आलोचनाकार ब्लोगर को ''अशिष्ट'' की संज्ञा देने में एक मिनट नहीं लगाता. होतें रहें आप सक्रिय-ईमानदार ब्लोगर पर आलोचनाकार की टिप्पणिया आहात तो कर ही जाती है -

                       ''होगा कोई ऐसा भी कि ''ग़ालिब ''को न जाने ;
                       शाइर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है .'' 

पर साहब जी ब्लोगिंग करते-करते ब्लोगर भी पक्का हो  जाता है .दो दिन हुए नहीं इस घमासान को कि फिर एक नयी पोस्ट तैयार -

                 ''रोने से और इश्क में बेबाक हो गए;
                    धोये गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए .''

अब टिपण्णी प्राप्त करनी है तो अन्य के ब्लॉग पर जाकर करनी भी होगी .जब तक ऐसी भावना मन में नहीं आती ब्लोगर का उद्धार होना मुश्किल है -

                                 ''हाँ भला कर तेरा भला होगा ;
                                    और दरवेश की सदा क्या है .''

भूले-भटके किसी ऐसे ब्लॉग पर पहुँच जाएँ जहाँ अनुसरनकर्ताओं की संख्या सौ-दो सौ-या हज़ार हो तो मन मचल उठता है और थोडा उदास भी हो जाता है अपने अनुसरनकर्ताओं की संख्या याद कर -

                        ''ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता
                          अगर और जीते रहते यही इंतजार होता .''

लेकिन चाहने से क्या होता है?ये तो अन्य ब्लोगर्स का हक़ है कि वे आपके ब्लॉग का अनुसरण करें न करें .हर ख्वाहिश पूरी हो ये जरूरी तो नहीं -

                        ''हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले 
                         बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले .
           
                                                                                                              [....जारी ]
                                              शिखा कौशिक 
                     http://vicharonkachabootra.blogspot.com


रविवार, 26 जून 2011

ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी -भाग -१ ]

ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी -[भाग -१ ]

भाई जबसे ब्लॉग बनायें हैं रातों की नींद उड़ गयी और दिन का सुकून खो गया .बार-बार दिल में यही गूंजता है -
''दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है ;
आखिर इस दर्द की दवा क्या है .''

ऊपर से कोई ब्लॉग-पोस्ट लिखकर ब्लॉग पर प्रकाशित कर दो तो टिप्पणियों का इंतजार करते-करते अच्छा खासा ब्लोगर भी बेहाल हो जाता है .दिल में एक हूक..........सी उठती है -

''बनाकर फकीरों का हम भेस ''ग़ालिब''
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं .''

इधर-उधर टाइम पास कर फिर से ब्लॉग खोलो तो ''नो कमेन्ट'' देखकर रहा-सहा सब्र भी जवाब देने लगता है .ब्लोगिंग न हुई मरी ''इश्क '' की बीमारी हो गयी -

''इश्क से तबियत ने जिस्त का मजा पाया ;
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया .''

अब ब्लोगिंग की बीमारी से ग्रस्त ब्लोगर के लिए तो मानो जीना-मरना सब बराबर .ब्लॉग देखे बिना भी चैन नहीं और देख कर भी -

''मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने-मरने का
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले .''

ले-दे कर यदि कई दिन में एक-आध टिपण्णी आ जाती है तब भी दिल को सुकून कहाँ -

''उनके देखे से जो आ जाती है मुहं पर रौनक ;
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है .''

फिर भी टिप्पणीकार के प्रति ह्रदय अगाध श्रद्धा से भर उठता है -

''वो आये घर हमारे खुदा की कुदरत है ;
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं .''

[जारी]
शिखा कौशिक

गुरुवार, 9 जून 2011

राजनीति में सब चलता है !

राजनीति  में सब चलता है !
ये भारत है और यहाँ की राजनीति में सब चलता है .तीन घटनाएँ जो हाल ही में भारतीय राजनीति में घटी हैं इसी ओर इशारा करती हैं .तीनों घटनाओं  इस प्रकार हैं -

*उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसोल में यू.पी. पुलिस द्वारा गाँव के किसानों पर अमानवीय अत्याचार किये गए जिसके विरोध में कांग्रेस पार्टी के महासचिव श्री राहुल गाँधी ने वहां पहुचकर अपना विरोध दर्शाते हुए न केवल गिरफ़्तारी दी बल्कि किसानों को न्याय दिलाने की आस भी बंधायी  .बहुत सराहनीय कदम था यह .
                    किन्तु ये ही राहुल जी दिल्ली में रामलीला मैदान में हुई जनता पर पुलिस क्रूरता के समय चुप रहे .घायल लोगों से मिलने तक नहीं गए .क्या इसीलिए कि वहां कांग्रेस की सरकार है?

*राजघाट पर भाजपा की तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज ने ठुमका लगाकर सारे देश को शर्मिंदा कर दिया .ऐसा क्या अच्छा हो गया था जिसने उन्हें झूमने को मजबूर कर दिया ?कही राजनैतिक बढ़त तो नहीं !एक ओर तड़पती जनता और दूसरी ओर ये मटकते नेता -बेहद शर्मनाक !

*उमा भारती जी ६ साल के लम्बे अंतराल के बाद भाजपा में लौट आयी .पता नहीं इतने समय में कितनी बार उन्होंने भाजपा को -इसके नेताओं को कोसा है ?क्यों लौट आते हैं अपमानित करके निकाले गए नेता ?क्या जनता के हितार्थ या अपना खोया रुतबा पाने के लिए ?शायद दूसरा कथन सच्चाई के ज्यादा करीब है .
अब उमा जी को  यूं.पी. की जिम्मेदारी सौपी गयी है .देखते हैं अब कौनसी सियासी चाल चल कर वे भाजपा को यहाँ पुनर्जीवित करती हैं ?

बस एक प्रश्न अब भी बाकी है कि किस नेता को हम आदर्श की संज्ञा दे सकते हैं ?शायद वर्तमान में तो किसी को नहीं !
                                शिखा कौशिक 

शुक्रवार, 3 जून 2011

पिता के साथ धोखा मत कीजिये !

पिछले वर्ष हमारे जिले में एक प्रेमी युगल घर से फरार हो गए थे .पुलिस ने दो लाशों की शिनाख्त उन दोनों के रूप में कर भी दी थी .क़त्ल के आरोप में लड़की के पिता-भाई  को पुलिस ने  गिरफ्तार कर लिया  और १४-१५ वर्षीय भाई ने पुलिस के समक्ष यह स्वीकार कर लिया कि उसने ही ये क़त्ल किये हैं .कहानी में मोड़ तब आया जब फरार प्रेमी युगल जिन्दा वापस लौट आये .पुलिस के पास इस बात का जवाब नहीं था कि यदि ये दोनों जिन्दा हैं तो वे लाशें किसकी थी ?बाद में लड़के के घर वालों ने लड़की को स्वीकार कर लिया और उसके गर्भ में पल रहे शिशु को भी .ये तो इस कहानी का सुखद अंत हो गया पर उस लड़की ने पिता के विश्वास को जिस तरह तोडा है कम से कम मैं तो उससे कभी सहमत नहीं हो सकती .वह लड़की घर से बाहर अपनी मौसी के यहाँ रहकर कोई प्रिओफैनल कोर्स कर रही थी .जब हमारे माता-पिता इस पुरुष प्रधान समाज में भी हमें यह मौका देते है कि हम  आर्थिक रूप से सक्षम बन सकें  तब हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम घर से बाहर रहकर  भी अपने माता पिता की इच्छाओं का ध्यान  रक्खे .मेरी जानकारी की एक अति विदुषी  महिला प्रवक्ता हैं .वे बताती हैं कि उनकी रुचि विज्ञानं विषय में थी किन्तु इसके लिए को .एड  .कॉलिज में प्रवेश लेना पड़ता .जिस समय उनके प्रवेश लेने की बात थी तभी एक लड़की किसी कॉलिज के  लड़के के साथ घर से भाग गयी और उनके पिता ने इस डर से कि कंही हमारे साथ भी ये हादसा न हो जाये उनका उस कॉलिज में प्रवेश नहीं कराया .असंयमित  ऐसी लडकिया यह नहीं सोच पाती कि उनके एक गलत कदम से कितनी लड़कियों का भविष्य फिर से चौखट के भीतर धकेल दिया जाता है .ऊपर जिस घटना का जिक्र मैंने किया है उसमे बाद में यह बात भी सामने आई कि लड़की के पिता ने उसके इस कदम से शर्मिंदा होकर जहर खा लिया था इसी कारण छोटे भाई ने क़त्ल का आरोप अपने पर लेकर अपने पिता को पुलिस के उत्पीडन से बचाने का प्रयास किया था .मैं केवल इतना कहना चाहूंगी ऐसी लड़कियों से कि जब आप ऐसे कदम उठाती हैं तब एक बार अपने पिता के बारे में सोचिये जिसने आपको सब कुछ दिया पर आप केवल अपने स्वार्थ में अंधी होकर उनकी भावनाओं  से धोखा कर जाती है .
                                           शिखा कौशिक