ब्लोगिंग और ग़ालिब की शायरी -[भाग -१ ]
भाई जबसे ब्लॉग बनायें हैं रातों की नींद उड़ गयी और दिन का सुकून खो गया .बार-बार दिल में यही गूंजता है -
''दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है ;
आखिर इस दर्द की दवा क्या है .''
ऊपर से कोई ब्लॉग-पोस्ट लिखकर ब्लॉग पर प्रकाशित कर दो तो टिप्पणियों का इंतजार करते-करते अच्छा खासा ब्लोगर भी बेहाल हो जाता है .दिल में एक हूक..........सी उठती है -
''बनाकर फकीरों का हम भेस ''ग़ालिब''
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं .''
इधर-उधर टाइम पास कर फिर से ब्लॉग खोलो तो ''नो कमेन्ट'' देखकर रहा-सहा सब्र भी जवाब देने लगता है .ब्लोगिंग न हुई मरी ''इश्क '' की बीमारी हो गयी -
''इश्क से तबियत ने जिस्त का मजा पाया ;
दर्द की दवा पाई दर्द बे-दवा पाया .''
अब ब्लोगिंग की बीमारी से ग्रस्त ब्लोगर के लिए तो मानो जीना-मरना सब बराबर .ब्लॉग देखे बिना भी चैन नहीं और देख कर भी -
''मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने-मरने का
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले .''
ले-दे कर यदि कई दिन में एक-आध टिपण्णी आ जाती है तब भी दिल को सुकून कहाँ -
''उनके देखे से जो आ जाती है मुहं पर रौनक ;
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है .''
फिर भी टिप्पणीकार के प्रति ह्रदय अगाध श्रद्धा से भर उठता है -
''वो आये घर हमारे खुदा की कुदरत है ;
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं .''
[जारी]
शिखा कौशिक
12 टिप्पणियां:
जबरदस्त खिंचाई के,
मूड में दीखते हैं जनाब |
किस ब्लोगर का करेंगे
आज खाना ख़राब ||
इश्क और ब्लागिंग
हैं ही कहाँ जुदा --
ये है मद्य का नशा
दूजा मद में फंसा ||
ढूँढना अर्थ,
होगा व्यर्थ ---सो १ टिपण्णी आई
मजा ले मेरे भाई ||
स्वागत है शिखा |
तुम्हारा शोध का
है विषय क्या ??
ऊपर से कोई ब्लॉग-पोस्ट लिखकर ब्लॉग पर प्रकाशित कर दो तो टिप्पणियों का इंतजार करते-करते अच्छा खासा ब्लोगर भी बेहाल हो जाता है .दिल में एक हूक..........सी उठती है -
''बनाकर फकीरों का हम भेस ''ग़ालिब''
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैं .''
sahi kaha behal to ho hi jate hain .majedar rachna badhai.
बेहद खुबसूरत शेर|
हाय एक नई बीमारी
बहुत ही मज़ेदार व्यंग्यरचना.....आपकी धारदार लेखनी को सलाम.
वाह!
चलो खिचाई के बहाने से अच्छे शेर पढवा दिये शुक्रिया शिखा जी।
मस्त लगी ब्लॉगिंग के साथ चचा गालिब की शायरी।
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विलुप्त हो जाएगा इंसान?
कहाँ ले जाएगी, ये लड़कों की चाहत?
"neel" to neela pad gaya
ek adad zawaab ke intezaar me
kabhi ham ashraaron ko
to kabhi chaand ka deedaar karte hain
koi to aayega jo khush ho jaayega
gar naa aaya to gam me ek
ghazal tyaar karte hain
ghaalib hote to kah dete ki
ye zawaab bhi rooh ke rang ke hain
tu dekh nahi paayega...
kuch aisa likh "neel"
jo khud-ba-khud kisi ke
rooh me utar jaayega......
:)
जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि वाली हालत हो गई है आपकी .
क्या कहने ..
हुजूर हम भी यहाँ हाजिरी लगाए जाते हैं
अरमानों को बुलंदियों पर ले जाए जाते हैं :)
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