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शनिवार, 29 सितंबर 2012

अजीब शौक है मुफ़लिसी को मारूफ़ शायरों से लिपट जाती है !

अजीब शौक है मुफ़लिसी को मारूफ़ शायरों से  लिपट जाती है !


१९ सितम्बर  २०१२ के दिन मशहूर शायर मुज़फ्फर रज्मी साहब इस दुनिया से रुखसत हो गए .उनकी एक पंक्ति  ''लम्हों ने खता की थी ...सदियों ने सजा पायी '' ने उन्हें हर ख़ासोआम का अजीज़ बना दिया .मुशायरों के  माध्यम से दुनिया भर में अपनी एक अलग पहचान बनाने वाले रज्मी साहब को भी अन्य महान साहित्यकारों की भांति आर्थिक अभावों से जूझना पड़ा .यदि आप सम्पूर्ण साहित्य जगत के महान साहित्यकारों की जिंदगी पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे अधिकांश साहित्यकारों की जिंदगी फ़कीराना ही गुज़रती है .शायद ये आर्थिक आभाव उनकी लेखनी की धार को और तेज़ कर देते हैं लेकिन सोचकर ह्रदय विषाद से भर जाता है कि आखिर सृजनकर्ताओं  का दामन ही दौलत से खाली क्यों रह जाता है ? ''पथ के  साथी ''में 'प्रणाम' रेखाचित्र के अंतर्गत महादेवी वर्मा जी ; 'कविन्द्र रविन्द्र' को शांति निकेतन के लिए धन एकत्र करने हेतु सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए देखकर ,लिखती हैं -' जीवन की सांध्य बेला में शांति निकेतन के लिए उन्हें अर्थ संग्रह में यत्नशील देखकर न कौतूहल हुआ न प्रसन्नता , केवल एक गंभीर विषाद की अनुभूति से ह्रदय भर आया .हिरण्य -गर्भा धरती वाला हमारा देश भी कैसा विचित्र है !जहाँ जीवन शिल्प की वर्णमाला भी अज्ञात है वहां वह साधनों का हिमालय खड़ा कर देता है और जिसकी उँगलियों में सृजन स्वयं उतरकर पुकारता है उसे साधन शून्य रेगिस्तान  में निर्वासित कर जाता है  .''पंडित बाल कृष्ण  भट्ट से लेकर निराला तक सभी महान साहित्यकारों तक आर्थिक अभावों का सिलसिला चलता आया है .पंडित बाल कृष्ण भट्ट ने ३३ वर्षों तक अपना मासिक पत्र ''हिंदी प्रदीप '' आर्थिक अभावों को झेलते हुए जारी रखा .बीस सितम्बर २०१२ के ' दैनिक जागरण ' समाचार पत्र में पेज तीन पर  रज्मी साहब की अधूरी हसरत के बारे में पढ़कर आखें नम हो गयी .जो इस प्रकार थी -


''जिंदगी भर  साहित्य सेवा करने वाले रज्मी की अपने आशियाने की इच्छा उन्ही के साथ चली गयी .अपनी खुद्दारी के चलते  उन्होंने किसी के सामने अपने हाथ नहीं फैलाये .घर में उनके तीन बेटों के अलावा  उनकी एक पुत्री है .उसके निकाह की इच्छा और अपनी छत की इच्छा लिए वह इस दुनिया से रुखसत हो गए .''
मैं निम्न लफ़्ज़ों में उर्दू के इस महान शायर को खिराजे अकीदत पेश कर रही हूँ -


अजीब शौक है मुफ़लिसी को मसखरी का ,
 मारूफ़  शायरों से आकर लिपट जाती है .

महफ़िलें लूट लेते सुनाकर कलाम अपना हैं ,
मगर फरफंदी किस्मत फ़ना इन्हें कर जाती है .

अपने शहकार से हो जाते हैं मशहूर बहुत ,
एक अदद मकान की हसरत मगर दिल में ही रह जाती है .

पहन उधार की अचकन अशआर सुनाते फिरते  ,
भूख से आंतें भीतर कुलबुलायें  जाती हैं .

मालिक देता है इल्म मुफ़लिसी के साथ 'नूतन '
मजाज़ी खुशियों को रूह शायरों की तरस जाती है .

                                         शिखा कौशिक ''नूतन ''







3 टिप्‍पणियां:

Shalini kaushik ने कहा…

बहुत सही व् शानदार प्रस्तुति आभार उत्तर प्रदेश सरकार राजनीति छोड़ जमीनी हकीकत से जुड़े.

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…


behtareen

कविता रावत ने कहा…

सबका अपना अपना शौक....
बहुत बढ़िया उम्दा प्रस्तुति ..