शोध-पत्र
संत काव्य में वैकल्पिक समाज की परिकल्पना (बाबा फरीद, गुरू नानक व कबीर दास के विशेष सन्दर्भ में) -
डॉ शिखा कौशिक
कांधला [शामली ]
हिंदी साहित्य के इतिहास का विद्वानों ने दीर्घ कालावधि के आधार पर व् तत्कालीन चित्तवृत्तियों का आश्रय लेकर काल-विभाजन व् नामकरण किया है | डॉ जयकिशन प्रसाद के अनुसार - '' चौदहवीं शताब्दी से जिस भक्ति साहित्य का सृजन प्रारम्भ हुआ , उसमें ऐसे महान साहित्य की रचना हुई , जो भारतीय इतिहास में अपने ढंग का निराला साहित्य है |''[ हिंदी दिग्दर्शन : हिंदी साहित्य का इतिहास ,प्रकाशक : जगदीश पब्लिकेशन ,आगरा -३ , पृष्ठ-५६ ] अपने ढंग के निराले इस साहित्य की धारा को ' भक्तिकाल ' के नाम से जाना जाता है | भक्तिकाल को दो धाराओं में विभक्त किया गया है - निर्गुण व् सगुण | निर्गुण काव्यधारा के अंतर्गत संत काव्य व् सूफी काव्य और सगुण काव्यधारा के अंतर्गत राम काव्य व् कृष्ण काव्य को रखा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण काव्यधारा को ' निर्गुण ज्ञानाश्रयी ' काव्यधारा के नाम से अभिहित किया है तो प्रसिद्द आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी ने इसे ' निर्गुण भक्ति-साहित्य ' का नाम दिया | डॉ रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया इसका नामकरण ' संत-काव्य ' ही आज सर्वाधिक प्रसिद्द है | डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार -' उत्तर भारत में मुसलमानी प्रभाव की प्रतिक्रिया के रूप में निराकार और अमूर्त ईश्वर की भक्ति का जो रूप स्थिर हुआ ; वही साहित्य के क्षेत्र में संत-काव्य कहलाया |'[ हिंदी.: हिंदी साहित्य का इतिहास , प्रकाशक : जगदीश पब्लिकेशन ,आगरा-३ , पृष्ठ -५६ ]
अनेक विद्वानों ने संत काव्य का आरम्भ बारहवीं शताब्दी से माना है | कुछ विद्वानों का मत है कि संत परम्परा का सर्वप्रथम पथ-प्रदर्शन भक्त कवि जयदेव ने किया था और उनके पश्चात् यह काव्यधारा निरंतरता के साथ अक्षुण्ण गति से प्रवाहित हुई | सोलहवीं शताब्दी तक आते-आते इस काव्यधारा में नामदेव , रामानंद , कबीर , पीपा , रैदास आदि संत कवियों के नाम जुड़ते गए | इसमें अन्य महत्वपूर्ण नाम हैं- गुरु नानक , दादू , सुन्दरदास , मलूकदास ,बुल्ला साहब व् बाबा फरीद आदि |
संत काव्य की सामाजिक पृष्ठभूमि एवं वैकल्पिक समाज की परिकल्पना
संत- काव्य की पृष्ठ्भूमि पर दृष्टिपात करें तो समाज जाति-पाँति के भेदभाव , सामंती संस्कृति , साम्प्रदायिकता आदि विषम सामाजिक परिस्थितियों से युक्त था। पाश्चात्य विद्वान बर्नियर ने तत्कालीन समाज की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है - ' हिन्दुओं के पास धन संचित करने के कोई साधन नहीं रह गए थे। अभावों और आजीविका के लिए निरंतर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। राज्य शक्ति पक्षपात पूर्ण थी। हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ। बाल-विवाह का प्रचलन हुआ। मुसलमान हिन्दू स्त्रियों को हराम में रखते थे। ''
इसके अतिरिक्त समाज शासक व् शासित के आधार पर दो वर्गों में बंटा हुआ था , जिसमें शासक- वर्ग के बादशाह , राजा , अमीर , सामंत, सेठ -साहूकार धनाढ्य थे व् विलासी जीवन व्यतीत करते थे। शासितों पर अन्याय व् अत्याचार करते थे जबकि शासित वर्ग अभावों से युक्त जीवन व्यतीत करने के लिए विवश था।भ्रष्टाचार चरम पर था। राज्य-कर्मचारियों द्वारा दुकानदारों से सामान बिना मूल्य चुकाए ; अपने पद का दुरूपयोग करते हुए हड़प लिया जाता था। किसान के पास खेती करने के लिए उचित साधन न थे , व्यापारी को व्यापार में हानि उठानी पड़ती थी , कामगारों के लिए काम न था। वर्ग विशेष को छोड़कर पूरा समाज अभावों , असुविधाओं से युक्त जीवन से अभिशापित था। हिन्दू-समाज के सामने धार्मिक उन्मादी इस्लामिक संस्कृति भी चुनौती बनकर खड़ी हुई थी , जिससे रक्षा हेतु हिन्दू-समाज अपने सामाजिक बंधनों को दृढ व् संकीर्ण बनाने के लिए विवश हुई और इसी सामाजिक दुर्दशा के विरुद्ध संत कवियों ने अपने पूर्ववर्ती सिद्ध व् नाथपंथी कवियों के स्वरों में स्वर मिलाते हुए आवाज उठाई।
जातिगत कठोरता , धर्मगत संकीर्णता , शासकों द्वारा किये जा रहे अत्याचार व् शोषण से त्रस्त जनता को मुक्त कराने हेतु संत कवियों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की , जो तमाम संकीर्णताओं से मुक्त हो , भ्रष्ट आचरण से मुक्त हो , जिसमें समाज के सभी जन समान हो , जो समाज धार्मिक-सौहार्द व् मानवीयता की भावना से युक्त हो। इस सन्दर्भ में हम कबीर दास , गुरु नानक व् बाबा फरीद द्वारा रचित संत-काव्य का अध्ययन कर सकते हैं।
संत-कवियों द्वारा परिकल्पित वैकल्पिक समाज की मुख्य विशेषताएं-
१- सामाजिक अन्याय से मुक्त समाज -
सभी संत कवियों ने एक स्वर में शक्तिसम्पन्न वर्ग द्वारा निर्बल वर्ग के शोषण का तीव्र विरोध किया और शक्तिशाली वर्ग को सचेत भी किया कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब तुम भी उस कमजोर तबके के द्वारा रौंद दिए जाओगे। अतः अन्याय का मार्ग छोड़ कर एक ऐसे समाज का निर्माण करो जिसमेँ अन्याय के लिए कोई स्थान न हो।
पंजाब के महान संतों में से एक व् पंजाबी के पहले कवि माने जाने वाले बाबा फरीद , जो मुस्लिम होते हुए भी हिन्दुओं द्वारा समान रूप से सम्मानित रहे हैं; का यह दोहा इसी दिशा की ओर संकेत करता है -
फरीदा खाकु न निन्दिये , खाकु जेड्ड न कोई ,
जीवदिआ पैरा तले , मुइआ उपरि होइ ||
अर्थात बाबा फरीद कहते हैं कि मिटटी/खाक की बुराई कदापि न करें , क्योंकि उसके जैसा और कोई नहीं है। जब तक आप जिन्दा रहते हो वह आपके पैरोंतले होती है किन्तु मृत्यु होने पर मिटटी तले दब जाते हो। तात्पर्य यह है कि तुच्छ समझे जाने वाले जन पर भी अन्याय व् अत्याचार नहीं करना चाहिए क्योंकि वक्त बदलते देर नहीं लगती है।
२-साधारण धर्म से युक्त समाज -
इस्लामिक एकेश्वरवाद व् अनेकों मत-मतान्तरों को संज्ञान में लेते हुए संत-कवियों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमे सभी एक साधारण धर्म का पालन करें। गुरु नानक ने हिन्दू-मुस्लिम के भेद को मिटाते हुए कहा -एक जोत से सब उपजाया '' और कबीर गा उठे - मोको कहा ढूंढें रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास रे। '' कबीर ने ईश्वर को निर्गुण कहा तो गुरु नानक ने निरंकार। वास्तव में एक साधारण धर्म के पालन की परिकल्पना कर संत कवियों ने समाज को यही सन्देश दिया कि धर्म के नाम पर विद्वेष रखना , संघर्ष करना व्यर्थ है क्योंकि धर्म तो मनुष्य को एक -दूसरे से जोड़ने का काम करता है न कि दुराग्रहों को बढ़ाने का।
३- बाह्याडम्बरों से मुक्त समाज की परिकल्पना -
संत कवियों ने समाज में फैली हुई कुरीतियों का जमकर विरोध किया। उनहोंने हिन्दू व् मुसलमानों की आडम्बर युक्त उपासना पद्धितियों को निशाने पर लेते हुए धर्म के मर्म को जानने पर जोर दिया। यथा-
''पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ,
ताते यह चाकी भली पीस खाये संसार ||[कबीर ]
*****************************************
काकर -पाथर जोरि के मस्जिद लै चिनाये ,
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाई || [ कबीर ]
४-जाति -पाँति के बंधन से मुक्त समाज-
जातिगत आधार पर समाज में व्याप्त भेदभाव व् अन्याय -शोषण ने संत कवियों को व्यक्तिगत रूप से भी शोषित किया . कबीर सहित सभी संत कवियों ने जातिगत भेदभाव को समाज से जड़ से उखड फेंकने का प्रयास किये। उन्होंने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें जाती व्यक्ति की पहचान न होकर केवल हरि भक्ति ही मानव की पहचान बने -
''जाति -पाती पूछे नहीं कोय ,हरी को भजे सो हरि का होय '' [ कबीर ]
५-आचरण की पवित्रता से युक्त समाज की परिकल्पना -
कबीर , गुरु नानक , बाबा फरीद सहित सभी संत कवियों ने आचरण की पवित्रता से युक्त समाज की परिकल्पना की। कथनी व् करनी की समानता , प्रेम ,सत्य, अहिंसा , सहदयता , मानव मात्र के प्रति सम्मान व् उदारता की भावना , अतिथि-सेवा , सद्गृहस्थ के गुणों से युक्त आचरण व् सत्य वाचन , मीठी बानी को सामाजिक समरसता हेतु आवश्यक माना। सत्य-भाषण को तो सर्वश्रेष्ठ तप बतलाते हुए कबीर ने कहा है -
'' साँच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप ,
जाके ह्रदय साँच है , ताके ह्रदय आप ||''
पराये दुख की पीड़ा को समझने वाला संवेदनशील समाज संत कवियों की परिकल्पना का समाज था - ''
''कबीर सोइ पीर है जो जाने पर पीर ''
उनका मत था कि जियो और जीने दो।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि संत कवियों ने तत्कालीन समाज में व्याप्त समस्त विषमताओं , विवशताओं , दुराग्रहों को पहचान कर एक ऐसे वैकल्पिक समाज की परिकल्पना की जो संकीर्णताओं [ धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक ] से ऊपर उठकर मानव को मानव बनने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। धार्मिक-उन्मादों से मुक्त , समन्वय की भावना से युक्त , जातिगत दुराग्रहों से मुक्त उदारमना समाज ही संत-कवियों की परिकल्पना का वैकल्पिक समाज है जिसके निर्माण की दिशा में अभी भी बहुत कदम आगे बढ़ाने हैं।
संत काव्य में वैकल्पिक समाज की परिकल्पना (बाबा फरीद, गुरू नानक व कबीर दास के विशेष सन्दर्भ में) -
डॉ शिखा कौशिक
कांधला [शामली ]
हिंदी साहित्य के इतिहास का विद्वानों ने दीर्घ कालावधि के आधार पर व् तत्कालीन चित्तवृत्तियों का आश्रय लेकर काल-विभाजन व् नामकरण किया है | डॉ जयकिशन प्रसाद के अनुसार - '' चौदहवीं शताब्दी से जिस भक्ति साहित्य का सृजन प्रारम्भ हुआ , उसमें ऐसे महान साहित्य की रचना हुई , जो भारतीय इतिहास में अपने ढंग का निराला साहित्य है |''[ हिंदी दिग्दर्शन : हिंदी साहित्य का इतिहास ,प्रकाशक : जगदीश पब्लिकेशन ,आगरा -३ , पृष्ठ-५६ ] अपने ढंग के निराले इस साहित्य की धारा को ' भक्तिकाल ' के नाम से जाना जाता है | भक्तिकाल को दो धाराओं में विभक्त किया गया है - निर्गुण व् सगुण | निर्गुण काव्यधारा के अंतर्गत संत काव्य व् सूफी काव्य और सगुण काव्यधारा के अंतर्गत राम काव्य व् कृष्ण काव्य को रखा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण काव्यधारा को ' निर्गुण ज्ञानाश्रयी ' काव्यधारा के नाम से अभिहित किया है तो प्रसिद्द आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्वेदी ने इसे ' निर्गुण भक्ति-साहित्य ' का नाम दिया | डॉ रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया इसका नामकरण ' संत-काव्य ' ही आज सर्वाधिक प्रसिद्द है | डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार -' उत्तर भारत में मुसलमानी प्रभाव की प्रतिक्रिया के रूप में निराकार और अमूर्त ईश्वर की भक्ति का जो रूप स्थिर हुआ ; वही साहित्य के क्षेत्र में संत-काव्य कहलाया |'[ हिंदी.: हिंदी साहित्य का इतिहास , प्रकाशक : जगदीश पब्लिकेशन ,आगरा-३ , पृष्ठ -५६ ]
अनेक विद्वानों ने संत काव्य का आरम्भ बारहवीं शताब्दी से माना है | कुछ विद्वानों का मत है कि संत परम्परा का सर्वप्रथम पथ-प्रदर्शन भक्त कवि जयदेव ने किया था और उनके पश्चात् यह काव्यधारा निरंतरता के साथ अक्षुण्ण गति से प्रवाहित हुई | सोलहवीं शताब्दी तक आते-आते इस काव्यधारा में नामदेव , रामानंद , कबीर , पीपा , रैदास आदि संत कवियों के नाम जुड़ते गए | इसमें अन्य महत्वपूर्ण नाम हैं- गुरु नानक , दादू , सुन्दरदास , मलूकदास ,बुल्ला साहब व् बाबा फरीद आदि |
संत काव्य की सामाजिक पृष्ठभूमि एवं वैकल्पिक समाज की परिकल्पना
संत- काव्य की पृष्ठ्भूमि पर दृष्टिपात करें तो समाज जाति-पाँति के भेदभाव , सामंती संस्कृति , साम्प्रदायिकता आदि विषम सामाजिक परिस्थितियों से युक्त था। पाश्चात्य विद्वान बर्नियर ने तत्कालीन समाज की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए लिखा है - ' हिन्दुओं के पास धन संचित करने के कोई साधन नहीं रह गए थे। अभावों और आजीविका के लिए निरंतर संघर्ष में जीवन बिताना पड़ता था। प्रजा के रहन-सहन का स्तर निम्न कोटि का था। करों का सारा भार उन्हीं पर था। राज्य पद उनको अप्राप्य थे। राज्य शक्ति पक्षपात पूर्ण थी। हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का आदान-प्रदान हुआ। बाल-विवाह का प्रचलन हुआ। मुसलमान हिन्दू स्त्रियों को हराम में रखते थे। ''
इसके अतिरिक्त समाज शासक व् शासित के आधार पर दो वर्गों में बंटा हुआ था , जिसमें शासक- वर्ग के बादशाह , राजा , अमीर , सामंत, सेठ -साहूकार धनाढ्य थे व् विलासी जीवन व्यतीत करते थे। शासितों पर अन्याय व् अत्याचार करते थे जबकि शासित वर्ग अभावों से युक्त जीवन व्यतीत करने के लिए विवश था।भ्रष्टाचार चरम पर था। राज्य-कर्मचारियों द्वारा दुकानदारों से सामान बिना मूल्य चुकाए ; अपने पद का दुरूपयोग करते हुए हड़प लिया जाता था। किसान के पास खेती करने के लिए उचित साधन न थे , व्यापारी को व्यापार में हानि उठानी पड़ती थी , कामगारों के लिए काम न था। वर्ग विशेष को छोड़कर पूरा समाज अभावों , असुविधाओं से युक्त जीवन से अभिशापित था। हिन्दू-समाज के सामने धार्मिक उन्मादी इस्लामिक संस्कृति भी चुनौती बनकर खड़ी हुई थी , जिससे रक्षा हेतु हिन्दू-समाज अपने सामाजिक बंधनों को दृढ व् संकीर्ण बनाने के लिए विवश हुई और इसी सामाजिक दुर्दशा के विरुद्ध संत कवियों ने अपने पूर्ववर्ती सिद्ध व् नाथपंथी कवियों के स्वरों में स्वर मिलाते हुए आवाज उठाई।
जातिगत कठोरता , धर्मगत संकीर्णता , शासकों द्वारा किये जा रहे अत्याचार व् शोषण से त्रस्त जनता को मुक्त कराने हेतु संत कवियों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की , जो तमाम संकीर्णताओं से मुक्त हो , भ्रष्ट आचरण से मुक्त हो , जिसमें समाज के सभी जन समान हो , जो समाज धार्मिक-सौहार्द व् मानवीयता की भावना से युक्त हो। इस सन्दर्भ में हम कबीर दास , गुरु नानक व् बाबा फरीद द्वारा रचित संत-काव्य का अध्ययन कर सकते हैं।
संत-कवियों द्वारा परिकल्पित वैकल्पिक समाज की मुख्य विशेषताएं-
१- सामाजिक अन्याय से मुक्त समाज -
सभी संत कवियों ने एक स्वर में शक्तिसम्पन्न वर्ग द्वारा निर्बल वर्ग के शोषण का तीव्र विरोध किया और शक्तिशाली वर्ग को सचेत भी किया कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब तुम भी उस कमजोर तबके के द्वारा रौंद दिए जाओगे। अतः अन्याय का मार्ग छोड़ कर एक ऐसे समाज का निर्माण करो जिसमेँ अन्याय के लिए कोई स्थान न हो।
पंजाब के महान संतों में से एक व् पंजाबी के पहले कवि माने जाने वाले बाबा फरीद , जो मुस्लिम होते हुए भी हिन्दुओं द्वारा समान रूप से सम्मानित रहे हैं; का यह दोहा इसी दिशा की ओर संकेत करता है -
फरीदा खाकु न निन्दिये , खाकु जेड्ड न कोई ,
जीवदिआ पैरा तले , मुइआ उपरि होइ ||
अर्थात बाबा फरीद कहते हैं कि मिटटी/खाक की बुराई कदापि न करें , क्योंकि उसके जैसा और कोई नहीं है। जब तक आप जिन्दा रहते हो वह आपके पैरोंतले होती है किन्तु मृत्यु होने पर मिटटी तले दब जाते हो। तात्पर्य यह है कि तुच्छ समझे जाने वाले जन पर भी अन्याय व् अत्याचार नहीं करना चाहिए क्योंकि वक्त बदलते देर नहीं लगती है।
२-साधारण धर्म से युक्त समाज -
इस्लामिक एकेश्वरवाद व् अनेकों मत-मतान्तरों को संज्ञान में लेते हुए संत-कवियों ने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमे सभी एक साधारण धर्म का पालन करें। गुरु नानक ने हिन्दू-मुस्लिम के भेद को मिटाते हुए कहा -एक जोत से सब उपजाया '' और कबीर गा उठे - मोको कहा ढूंढें रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास रे। '' कबीर ने ईश्वर को निर्गुण कहा तो गुरु नानक ने निरंकार। वास्तव में एक साधारण धर्म के पालन की परिकल्पना कर संत कवियों ने समाज को यही सन्देश दिया कि धर्म के नाम पर विद्वेष रखना , संघर्ष करना व्यर्थ है क्योंकि धर्म तो मनुष्य को एक -दूसरे से जोड़ने का काम करता है न कि दुराग्रहों को बढ़ाने का।
३- बाह्याडम्बरों से मुक्त समाज की परिकल्पना -
संत कवियों ने समाज में फैली हुई कुरीतियों का जमकर विरोध किया। उनहोंने हिन्दू व् मुसलमानों की आडम्बर युक्त उपासना पद्धितियों को निशाने पर लेते हुए धर्म के मर्म को जानने पर जोर दिया। यथा-
''पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ,
ताते यह चाकी भली पीस खाये संसार ||[कबीर ]
*****************************************
काकर -पाथर जोरि के मस्जिद लै चिनाये ,
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाई || [ कबीर ]
४-जाति -पाँति के बंधन से मुक्त समाज-
जातिगत आधार पर समाज में व्याप्त भेदभाव व् अन्याय -शोषण ने संत कवियों को व्यक्तिगत रूप से भी शोषित किया . कबीर सहित सभी संत कवियों ने जातिगत भेदभाव को समाज से जड़ से उखड फेंकने का प्रयास किये। उन्होंने एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जिसमें जाती व्यक्ति की पहचान न होकर केवल हरि भक्ति ही मानव की पहचान बने -
''जाति -पाती पूछे नहीं कोय ,हरी को भजे सो हरि का होय '' [ कबीर ]
५-आचरण की पवित्रता से युक्त समाज की परिकल्पना -
कबीर , गुरु नानक , बाबा फरीद सहित सभी संत कवियों ने आचरण की पवित्रता से युक्त समाज की परिकल्पना की। कथनी व् करनी की समानता , प्रेम ,सत्य, अहिंसा , सहदयता , मानव मात्र के प्रति सम्मान व् उदारता की भावना , अतिथि-सेवा , सद्गृहस्थ के गुणों से युक्त आचरण व् सत्य वाचन , मीठी बानी को सामाजिक समरसता हेतु आवश्यक माना। सत्य-भाषण को तो सर्वश्रेष्ठ तप बतलाते हुए कबीर ने कहा है -
'' साँच बराबर तप नहीं , झूठ बराबर पाप ,
जाके ह्रदय साँच है , ताके ह्रदय आप ||''
पराये दुख की पीड़ा को समझने वाला संवेदनशील समाज संत कवियों की परिकल्पना का समाज था - ''
''कबीर सोइ पीर है जो जाने पर पीर ''
उनका मत था कि जियो और जीने दो।
निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि संत कवियों ने तत्कालीन समाज में व्याप्त समस्त विषमताओं , विवशताओं , दुराग्रहों को पहचान कर एक ऐसे वैकल्पिक समाज की परिकल्पना की जो संकीर्णताओं [ धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक ] से ऊपर उठकर मानव को मानव बनने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। धार्मिक-उन्मादों से मुक्त , समन्वय की भावना से युक्त , जातिगत दुराग्रहों से मुक्त उदारमना समाज ही संत-कवियों की परिकल्पना का वैकल्पिक समाज है जिसके निर्माण की दिशा में अभी भी बहुत कदम आगे बढ़ाने हैं।