भगवन राम प्रेम अमृत की खोज कर जगत को देना चाहते हैं ....जब आपको कोई प्रेम से बुलाता है तो आप सब-कुछ भूल जाते हैं ....कृष्ण -प्रेम में डूबी ब्रजांगनाओं को संसार का कोई बंधन नहीं रोक पाया था.....भगवान राम के वनवास का एक कारन यह भी था और भगवान कृष्ण की भी यही खोज है कि संसार को प्रेम मिले और लोग एक दूसरे से प्रीति करें .''सब नर करें परस्पर प्रीती ''.प्रेम पूर्ण होने के कारन ही श्री राम हमारे ह्रदय में निवास करते हैं -रमते हैं वही दशानन प्रेम-विहीन होने के कारण जगत को रुलाने वाले ''रावन' के रूप में कुख्यात हुआ .रावन में वासना है और श्री राम में निर्मल प्रेम फिर भला सीता [शांति] रावन को कैसे मिल सकती थी ?जहाँ प्रेम की निर्मल धारा बहती है वहीँ शांति है ,समृद्धि है और जीवन का वास्तविक आनंद है. प्रेम मार्ग के अन्वेषी बनकर समस्त विश्व को युद्ध ,कलह ,बर्बरता के भय से मुक्त कर देना ही आज प्रत्येक विश्व -मानव का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए .
श्री राम ,श्री कृष्ण ,गुरु नानक ,मो.साहब ,इसा मसीह -सभी केवल एक सन्देश देते है -प्रेम का सन्देश .प्रेम में कितनी शक्ति है -इस सन्दर्भ में 'हजरत अली 'के जीवन से जुड़ा यह प्रसंग यहाँ सटीक बैठता है -
''एक बार हजरत अली ने अपनी जरह [सुरक्षा कवच ]एक यहूदी के पास देखकर भी अपनी ताकत का इस्तेमाल न करते हुए काजी के पास जाकर कहा की यह जरह मेरी है .काजी ने गवाह माँगा किन्तु हजरत साहब ने गवाह प्रस्तुत नहीं किया .यहूदी जरह लेकर चला गया लेकिन शीघ्र ही वापस आकर हजरत साहब के चरणों में गिर गया और बोला ''यह जरह आपकी ही है जो की सिफ्फीन की लड़ाई में गिर गयी थी .अब आप जो सजा चाहें मुझे दें !''काजी ने गवाह पेश न करने का कारण जब हजरत साहब से पूछा तो वे बोले ''चूंकि मैं खलीफा हूँ ,बहुत सारे गवाह प्रस्तुत कर सकता था किन्तु तब आपके दिल में यह ख्याल आता की लोग मुझसे डर कर गवाही दे रहे है .''हजरत अली के इस कथन से स्पष्ट है कि शक्ति के स्थान पर महापुरुषों ने -फरिश्तों ने प्यार में ज्यादा ताकत मानी है .प्यार संसार को आपके क़दमों में झुका देता है .
'मदर टेरेसा 'को हम यूँ ही तो मदर की संज्ञा नहीं देते .जिसका ह्रदय जितने निर्मल प्रेम भाव से भरा है वो उतना ही महान है .वो किसी को छू भर दे तो छुए गए की पीड़ा पल भर में छूमंतर हो जाती है .मदर टेरेसा के स्नेहिल स्पर्श से न जाने कितने मानसिक रूप से टूट चुके इंसानों में जीवन शक्ति का संचार हुआ .वैज्ञानिक कहते हैं -स्नेहिल स्पर्श किसी के शरीर में रक्त-संचरण बढ़ा सकता है ,जिससे वह अधिक से अधिक औक्सीजन ग्रहण कर अशुद्ध वायु निष्काषित करता है.शरीर में शुद्ध रक्त के संचरण से ऊर्जा का संचार होता है और व्यक्ति स्वस्थ व् प्रसन्नचित अनुभव करता है .एक्यूप्रेशर ,रेकी आदि चिकित्सा पद्धतियाँ तो मात्र मानवीय संवेदना के इजहार पर आधारित हैं .माँ व् शिशु का आत्मिक सम्बन्ध भी तो प्रेम की स्नेहिल नीव पर टिका है .फिर अन्य प्राणी मात्र भी तो स्नेहिल स्पर्श द्वारा ही हम से जुड़ जाते हैं -वो हमारा घोडा हो ,कुत्ता हो अथवा कोई पक्षी ,गिलहरी .निश्चित रूप से आज के भौतिकतावादी युग में संवेदनहीन होकर आतंक मचाते हुए मशीनी -मानव को 'प्रेम' ही सर्जन की और लौटा ला सकता है .अगर ह्रदय में प्रत्येक मानव के प्रति पवित्र प्रेम की जोत जगी होती तो क्या कसाब एक भी गोली मासूम लोगों पर चला सकता था ?नहीं बिलकुल नहीं क्योकि प्रेमपूर्ण ह्रदय जगत निर्माण में अपनी ऊर्जा लगाता है .वह धर्म ,जाति ,देश के बन्धनों से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण को प्राथमिकता देता है .वो तो किसी की आँख में एक आंसू भी नहीं देख सकता तो फिर हत्या का विचार उसके ह्रदय में कैसे आ पायेगा ?मेरे विचार में आज जीवन में यदि किसी की भी प्रथम आवशयकता है तो वह है -''प्रेम ''वास्तव में प्रेम से भरा मानव ही मानव कहलाने का अधिकारी है और यही प्रेम का जीवन में वास्तविक महत्व है जब हम प्रेम से भरकर कह उठे -
''किसी कि आँख का आंसू मेरी आँखों में आ छलके ,
किसी की साँस थमते देख मेरा दिल चले थम के ,
किसी के जख्म की टीसों पे मेरी रूह तड़प जाये ,
किसी के पैर के छालों से मेरी आह निकल जाये ,
प्रभु ऐसे ही भावों से मेरे इस दिल को तुम भर दो ,
मैं कतरा हूँ मुझे इंसानियत का दरिया तुम कर दो .''
प्रेम के जीवन में वास्तविक महत्व के पश्चात् इस विषय पर भी गहन चिंतन की आवश्यकता है कि आखिर ''सच्चे प्रेम का स्वरुप क्या है ?''आज युवा पीढ़ी के हाथ में धन ,पद ,प्रतिष्ठा सब कुछ आ चुका है .एक और युवा वर्ग धन की दौड़ में व्यस्त है तो दूसरी और 'आई लव यू ' कहकर गली-गली प्रेम का इजहार हो रहा है .लाल गुलाब ,ग्रीटिंग कार्ड .चाकलेट आदि भेंट कर प्रेम का प्रदर्शन किया जा रहा है .यदि तब भी प्रेम स्वीकार न किया जाये तो खुलेआम गोली मरकर उसकी हत्या कर दी जाती है या तेजाब डालकर उसके चेहरे को वीभत्स बना दिया जाता है .सारी सीमाए लांघकर विवाह पूर्व प्रेम के नाम पर शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाते है और प्रेमिका के गर्भवती होते ही प्रेमी सारे नाते तोड़कर पल्ला झाड़ लेता है .अत्यधिक प्रेम प्रदर्शन के लिए आत्महत्या तक की जा रही हैं .क्या यही प्रेम है ?कॉलेज के युवक-युवती तो आजकल 'तू नहीं तो और सही ,और नहीं तो और सही ...'की तर्ज पर 'आई एम् इन लव 'के कल्पना लोक में विचरण कर रहे है .इन्हें लक्ष्य करता हुआ 'कबीर दस ' जी का यह दोहा कितना सटीक है -
आया प्रेम कहाँ गया ,देखा था सब कोय ,
छीन रोवे छीन में हसे ;यह तो प्रेम न होय .''
वास्तव में यह मात्र वासना-कामना -आकर्षण है .वासनामय प्रेम से तो बुद्धि कुंठित होगी ही न .जहाँ संयम नहीं ,त्याग नहीं -वह प्रेम है ही नहीं .प्रसिद्ध हिंदी कवि 'श्री जयशंकर प्रसाद 'की ये पंक्तियाँ प्रेम के आदर्श रूप को वर्णित करते हुए यही सन्देश देती हैं कि प्रेम का आदर्श ग्रहण नहीं ,त्याग है -
''पागल रे !वह मिलता है कब ,
उसको तो देते ही हैं सब ''
आज एक और प्रवर्ति ''प्रेम ''भावना का हास उड़ती प्रतीत होती है जब युवा वर्ग अपने लिए धनाढ्य साथी की चाह रखता है अर्थात ''प्रेम ''भी बुद्धि का विषय हो चुका है.सच्चा प्रेम तो ह्रदय में बसता है .प्रेम के क्षेत्र में कोई निर्णय लेना बुद्धि के वश में नहीं है .यह तो ह्रदय का विषय है और इस सम्बन्ध में 'भावना' प्रधान निर्णायक की भूमिका निभाती है .जो प्रेम धन -प्रदर्शन ,सौन्दर्य पर आसक्त होकर उत्पन्न हो वह प्रेम नहीं -
''प्रेम न बाड़ी उपजी ,प्रेम न हाट बिकाय;
राजा प्रजा जो रुचे ,शीश देय ले जाए .''
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने जायसी कृत 'पद्मावत'में पद्मावती की रूप चर्चा सुनकर राजा रत्नसेन के पद्मावती को प्राप्त करने की लालसा को 'रूप-लोभ' कहकर ''सच्चे प्रेम 'के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए लिखा है -''हमारी समझ में तो दूसरे के द्वारा -चाहे वह चिड़िया हो या आदमी-किसी पुरुष या स्त्री के रूप -गुण आदि को सुनकर चट उसकी प्राप्ति की इच्छा उत्पन्न करने वाला भाव लोभ मात्र कहला सकता है ,परिपुष्ट प्रेम नहीं .लोभ और प्रेम के लक्ष्य में सामान्य और विशेष का ही अंतर समझा जाता है .कही कोई अच्छी चीज सुनकर दौड़ पड़ना यह लोभ है .कोई विशेष वस्तु चाहे दूसरे के निकट वह अच्छी हो या बुरी -देख उसमे इस प्रकार रम जाना कि उससे कितनी ही बढ़कर अच्छी वस्तुओं के सामने आने पर भी उनकी और न जाये -प्रेम है .''स्पष्ट है कि प्रेम का सच्चा स्वरुप वही है जो हमारे ह्रदय में बस जाये .प्रेम की न तो कोई भाषा है और न ही कोई सीमा .पवित्रता ,कल्याण ,निस्वार्थ-त्याग -आदि आदर्शों को अपने में समाये हुए जो हमारा भाव है -वही प्रेम है .डॉ. एन.सिंह के शब्दों में -
'इस धरा से सभी कांटे मिल के चुनें ,
नेह के तार वाली चुनरिया बुनें ,
ओढ़ जिसको थिरकने लगे स्वप्न सब ,
मन्त्र बस प्यार वाला ही हम सब गुनें .''
शिखा कौशिक
http://vicharonkachabootra.blogspot.com/
भारतीय ब्लॉग लेखक मंच द्वारा आयोजित महाभारत प्रथम प्रतियोगिता में मेरे इस आलेख को संयुक्त रूप से प्रथम घोषित किया गया है और निम्न प्रमाणपत्र द्वारा सम्मानित किया गया है
अपने ब्लॉग के माध्यम से मैं भारतीय ब्लॉग लेखक मंच का हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ.